प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। जब अज्ञानी दिखता है कि ये अज्ञान के संसार में फँसा हुआ है तो वो संसार से पहले मुक्ति चाहता है, तो उस तल पर उसको तो कर्ताभाव इतनी आसानी से छोड़ेगा नहीं।
आचार्य : स्पष्ट करिए क्या पूछ रहे हैं।
प्र: मतलब संसारी कर्म करते हुए, आप जिस आयाम की बात कर रहे हैं, उस आयाम को भी साथ में लेकर कैसे चल सकते हैं?
आचार्य: सांसारिक कर्म आप कर ही नहीं रहे हैं। सांसारिक कर्म हो रहे हैं अपनेआप। मूल भ्रम यही है कि सांसारिक कर्म करने वाले आप हैं। इन्द्रियाँ हैं, मस्तिष्क है, बुद्धि है, अंतःकरण है, स्मृति है, ये सब अपना काम करना बख़ूबी जानते हैं। आप न जाने किस दंभ में हैं कि ये सब काम दुनिया के आप कर रहे हैं!
आप नहीं कर रहे हैं ये बात सुनने में बड़ी अविश्वसनीय लगती है। अविश्वसनीय इसलिए लगती है क्योंकि इस पर विश्वास करना बड़ा महंगा सौदा है, पर बात है ऐसी ही। न दुनिया को चलाने वाले आप हैं, न ही अपने शरीर को, अपने तंत्र को, अपने विचारों को चलाने वाले आप हैं। शरीर एक स्वायत्त इकाई है, स्वयंभू है, स्वशासित है; वो अपना काम जानता है।
सो जाते हो उसके बाद भी शरीर कैसे चलता रह जाता है? चल रहे हो, सामने से अचानक कोई साँप आ गया, विचार करने का तो समय होता नहीं तुम्हारे पास, तो भी तत्काल कैसे निर्णय कर लेते हो और तत्काल कैसे पलट जाते हो? ये क्या तुमने करा? वो सब बातें शरीर को पता है, विचार भी शारीरिक है और विचार बहुत शुद्ध हो जाता है जब तुम विचार में दखलंदाज़ी नहीं करते। जब विचार निर्वैयक्तिक हो जाता है।
विचार बिलकुल वैसे ही है जैसे तुम्हारी साँस चल रही है, तुम्हारे चलाने से तो नहीं चलती न? फेफड़ों के लिए जैसे साँस का चलना, मस्तिष्क के लिए वैसे ही विचार का चलना। तुम क्यों कहते हो कि तुम विचार कर रहे हो? तुम ये कहते हो क्या कि मैं साँस ले रहा हूँ? जब कह भी देते हो कि मैं साँस ले रहा हूँ तो तुम जानते हो कि तुम्हारे लेने से नहीं चल रही, वो अपनेआप चल रही है। इसी तरीक़े से सब विचार भी अपनेआप ही हैं।
ये हमने झूठा भेद करा हुआ है कि शरीर की कुछ गतियाँ स्वायत्त होती हैं और कुछ गतियाँ हमारे द्वारा निर्धारित होती हैं। हम उनको कहते हैं वॉलेंटरी (स्वैच्छिक) और इनवॉलेंटरी (अनैच्छिक)। यहाँ सबकुछ ही इन्वॉलेंटरी है, यहाँ सबकुछ ही स्वनिर्धारित है। तुम्हारे ऊपर कोई उत्तरदायित्व नहीं है इस व्यवस्था को चलाने का, तुम्हारे ऊपर जो उत्तरदायित्व है वो बिलकुल दूसरा है। तुम्हारे ऊपर उत्तरदायित्व है इस व्यवस्था से अपनेआप को छुड़ाने का, अपनेआप को आज़ाद करने का। व्यवस्था खूब जानती है कैसे चलना है, मस्तिष्क है न? बुद्धि भी तो इसी व्यवस्था का हिस्सा है, बुद्धि तय कर लेगी कि व्यवस्था कैसे चले, तुम परेशान मत हो। तुम बुद्धि भी नहीं हो।
निर्वाण षटकम् में आदि शंकराचार्य क्या समझाते हैं तुमको? यही नहीं कहते कि तुम देह नहीं हो, वो तुम्हें ये भी बताते हैं कि तुम मन नहीं हो, बुद्धि नहीं हो, चित्त नहीं हो, अहंकार नहीं हो, बुद्धि भी तुम नहीं हो, बुद्धि अपना काम अकेले कर लेगी। बुद्धि को मुक्त छोड़ दो, वो अपना काम करना जानती है। स्मृति भी अपना काम करना जानती है। पूरी व्यवस्था अपना काम करना जानती है। मस्तिष्क अपना काम कर लेगा, तुम्हें हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम व्यर्थ ही घुसे हुए हो बेगाने कामों में। उसकी वजह से तुम अपना काम नहीं कर पा रहे।
तुम्हारा क्या काम है? इन सब पराये कामों से अपनेआप को छुड़ाना, मुक्त करना। वो तुम्हारा काम है। तुम अपना काम करने की जगह ऐसा काम कर रहे हो जिसमें तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं, जिसमें तुम्हारी मौजूदगी से विघ्न ही पड़ता है।
तो ये मत पूछो कि मैं सांसारिक तल पर रहते हुए भी आकाश के तल को कैसे साधूँ। सांसारिक तल पर जो है सो है, तुम नहीं हो। संसार के तल पर वो है जो संसार का हिस्सा है, कौन है संसार का हिस्सा? कौन है संसार का उत्पाद? कौन है जो संसार से ही उठा है और संसार में ही विलीन हो जाएगा? शरीर।
संसार के तल पर शरीर है। शरीर अपना काम करता रहेगा, तुम हो ही किसी दूसरे तल के। तुम ये मत कहो कि मुझे तो दोनों तलों को एक साथ साधना है, मुझे संसार के तल पर संसार के काम करने हैं और साथ ही साथ मुझे तो मुक्ति का आयोजन भी करना है आकाश के तल पर। ना, तुम कहीं और के हो, शरीर कहीं और का।
शरीर को, बुद्धि को, मस्तिष्क को इनको अपना काम करने दो। ये जो जीव हैं ये अपना काम करना जानता है। तुम दूसरों का काम करोगे तो तुम्हारा काम कौन करेगा, भाई! एक बार अपनी व्यवस्था को थोड़ी आज़ादी देकर देखो, तब थोड़ा यक़ीन आएगा। अपनी व्यवस्था को अपनेआप से थोड़ी ढ़ील देकर देखो, तुम पाओगे कि दोनों के लिए अच्छा है, तुम्हारी व्यवस्था के लिए भी, तुम्हारे लिए भी। व्यवस्था भी तुम्हारे बोझ से आज़ाद होकर काम कर पाएगी और तुम भी तनाव-मुक्त होकर, व्यवस्था की ज़िम्मेदारी से आज़ाद होकर काम कर पाओगे; दोनों अपना अपना काम कर पाएँगे। इसी को कहते हैं डूबकर काम करना।
डूबकर काम करने का मतलब समझते हो क्या होता है? अहंता को डुबाकर काम करना। जब तुम डूबकर काम कर रहे होते हो तो काम स्वत: हो रहा होता है न, तुम भूल ही जाते हो कि तुम कर रहे हो। इस स्वायत्ता को ही कहते हैं डूबना, काम में आप्लावन। तुम सोचते नहीं कभी कि कौन डूब गया। कहते हैं कि चलो डूबकर काम करो। जब डूबकर काम करते हैं तो काम बढ़िया होता है, आनन्द बहुत रहता है। ये काम का बढ़िया होना और आनन्द का आना क्या है? समझो।
काम बढ़िया इसलिए हो पाएगा क्योंकि काम अब वही कर रहा है जिसे काम करना चाहिए, कौन? व्यवस्था काम कर रही है। वो अपना काम ख़ूब जानती है और काम जब डूबकर करते हो तो कहते हो आनन्द आया। आनन्द किसको आया? तुम्हें आया, क्यों आनन्द आया? क्योंकि तुम काम से आज़ाद हो गये। काम में जटे हुए थे, पिले हुए थे, पिसे जा रहे थे, उस काम से आज़ादी मिली, आनन्द आएगा कि नहीं आएगा? इसी को कहते हैं डूबकर काम करना। जिसे काम करना है उसे काम करने दो, तुम ज़रा हट जाओ, तुम डूबकर मर जाओ।
हम डूबकर काम इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि हम कर्ता बने हुए हैं काम के। हम कर्ता को डुबा ही नहीं पाते। उसे डुबा दो, उसे जल समाधि दे दो। इसी को कहते हैं वर्तमान में जीना भी, डूबकर काम करना। ये सब चीज़ें बिलकुल एक हैं, दिखाई पड़ रहा है?
कर्ताभाव से आज़ादी, वर्तमान में जीना, मुक्ति, समाधि सब एक हैं। प्रकृति और पुरुष के मध्य एक सम्यक् दूरी, ये भी वही बात है। अच्छा, आप अभी डूबकर सुन रहे हैं क्या? अगर डूबकर सुन रहे हैं तो अहम् का कुछ पता है अभी आपको? इस सुनने की प्रक्रिया में आप मौजूद हैं क्या? या ये प्रक्रिया स्वत: ही चल रही है, बोलो?
अपना तो कुछ होश नहीं न, तुम बस सुन रहे हो सुनने में डूब गये हो, अपना कुछ होश नहीं। जब तुम डूब गये, जब तुम हट और मिट गये, तो सुनना बेहतर हो रहा है या कमतर? यही है जीवन का सूत्र। तुम हट जाते हो तो सब काम बेहतर होने लगते हैं, तुम हट जाते हो तो काम बेहतर हो जाता है और तुम आनन्दित हो जाते हो। तुम्हारा आनन्द ही इसी में है कि तुम वहाँ पर शामिल न हो जाओ, वहाँ बद्ध न हो जाओ जहाँ तुम्हें होना नहीं चाहिए; यही आनन्द है।
वो जो अनावश्यक है उससे मुक्ति का ही नाम आनन्द है, जो ज़िम्मेदारी तुम्हारी है ही नहीं उस ज़िम्मेदारी को नमस्कार कर लेने का ही नाम आनन्द है। हम सबका दुख ही यही है कि हमने वो ज़िम्मेदारियाँ अपने ऊपर आरोपित कर ली हैं जो किसी भी तरह हमारी हैं ही नहीं, इसी को कर्ताभाव कहते हैं। और जो हमारी ज़िम्मेदारी है उसके प्रति हम निहायत ही गैर ज़िम्मेदार हैं।
जो करना नहीं, वो करे जा रहे हैं और जो करना परमावश्यक है उसके प्रति उपेक्षा है, अवहेलना है। निन्यानबे-दशमलव-नौ प्रतिशत कर्म जिनके हम कर्ता बनते हैं, अनावश्यक हैं। कर्म अनावश्यक हो न हो, हमारा कर्ता होना तो निश्चित ही अनावश्यक है। इससे तुम्हें कुकर्म की भी सही परिभाषा मिल जाएगी।
कुकर्म क्या?
जिसके तुम नाहक ही कर्ता बन बैठो सो कुकर्म है। जिसको तुम होने न दो बल्कि जिसके तुम विधाता बन जाओ सो कुकर्म है।
अहंकार विधाता ही बन जाना चाहता है, यही तो अहंता है, यही तो गुरूर है – मैं कौन? विधाता। और जब अहंकार विधाता बनता है तो फिर वो जो भी कर्म करे उसी का नाम को कुकर्म है। अहंकार ऐसा है जैसा इस जगह पर मौजूद कुछ मक्खियाँ, तुम्हें नहीं मालूम वो क्या सोच रही होंगी। सोच वो कुछ भी नहीं रही हैं, वो मनुष्य जितनी मूर्ख नहीं हैं। पर अगर उन मक्खियों में मनुष्य की चेतना आ जाए तो जानते हो क्या विचार करेंगी? ये जो यहाँ मक्खियाँ हैं कुछ इनमें अगर आदमी की चेतना आ जाए तो क्या विचार करेंगी?
‘अभी अगला प्रश्न पता नहीं क्या आने वाला है, उत्तर थोड़ा ख़ोज-खाजकर तैयार करके रखना है। ये लाइव प्रसारण ठीक से हो रहा है कि नहीं हो रहा है?’ तुम्हें क्या लगता है वो बार-बार मक्खी कमलेश (स्वयंसेवी) के पास क्यों जाती है? वो यही जाँचने तो जाती है कि कुछ गड़बड़ तो नहीं चल रही, बताओ मैं ठीक कर देती हूँ, मेरे पास क्यों आती है? वो उत्तर बताने आती है कि जो बात पूछी गयी है ये बताइए आप।
उसको पूरा भरोसा है कि ये सब जो हो रहा है, उसी के करे हो रहा है और एक है जो वहाँ दम तोड़ गयी कोने में। उसको तनाव बहुत बढ़ गया था, उसे हृदयाघात आ गया उसने कहा ‘इतनी बड़ी व्यवस्था है मुझे ही तो चलानी है।‘ भीतर तनाव इतना बढ़ा कि दिल का दौरा पड़ गया, रक्तचाप, मधुमेह ये सब उसे पहले से ही थे।
भाई, आदमी की चेतना है तो ये सब तो होंगी ही चीज़ें। और वो जो आपके ऊपर एक-एक करके आकर बैठ रही है वो आपको बता रही है – सवाल ऐसे पूछो, ये करो, कुछ समझ में आ रहा है? मैं तुम्हें इतना समझा रही हूँ तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है? वो देखो शिवा के आसपास एक है, जवाब दो, भाई! वो बहुत ज़िम्मेदार मक्खी है, अपने कर्तव्य का पालन कर रही है। जीव दुनिया में ऐसे ही जीता है जैसे इस आयोजन में मक्खियाँ जी रही हैं।
जो जाने, जो समझे उसे स्पष्ट दिखेगा कि यहाँ मक्खियाँ बिलकुल अनावश्यक हैं, गैर ज़रूरी है, यहाँ नहीं होना चाहिए उनको। पर मक्खियों की दृष्टि में अगर वो न हों तो यहाँ का काम कौन करेगा! वही तो करती हैं।
हम ऐसी ही भिनभिनाती हुई मक्खियाँ हैं, भगाइए नहीं उसे, कुछ आदर सम्मान दीजिए। वो बड़ी कर्तव्य-परायण मक्खी है। सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं। फिर भी जब सत्र पूरा हो जाएगा तो इनमें से एक-दो मक्खी आकर मुझसे पूछेंगी, ‘ये बताइए मुक्ति कैसे मिलेगी? काम बहुत ज़्यादा है, ऐसा क्या करें कि सांसारिक तल पर अपने सारे काम करते हुए भी मुक्ति पा लें?’ तो मैं उन्हें फिर चक्रवर्ती सम्राट के पास भेजूँगा।
मैं कहूँगा, ‘बिलकुल आपकी ही स्थिति में है, वो भी यही पूछ रहे थे कि दुनियाभर के काम भी तो करने हैं, ये सब काम करते हुए मुक्ति कैसे पायें।’ गई आपकी तरफ़ एक मेरे पास भी आयी है।
भाई, आप लोग तो अपेक्षतया शान्त ही बैठे हैं, सबसे ज़्यादा यहाँ कूद-फाँद, दौड़-धूप कौन कर रहा है? मक्खियाँ। तो उनको पूरा भरोसा है कि ये जो पूरा आयोजन है वो ही चला रही हैं। आप भी तो दिनभर दौड़ धूप करते रहते हैं, आपको भी तो भरोसा है कि आपकी दौड़-धूप के मत्थे दुनिया चल रही है। कम-से-कम आपकी दुनिया आपकी दौड़ धूप के मत्थे चल रही है, ऐसा ही भरोसा है न आपको?
तो देखो, दिखाओ मुझे कोई मक्खी जो शान्त बैठी हो। देखो, मेहनती मक्खियाँ, थकी हुई मक्खियाँ और फिर उनको बड़ी शिकायत है – ‘हम इतनी मेहनत करते हैं और श्रेय हमें मिलता नहीं। दुनिया ने आजतक आकर एक बार शुक्रिया नहीं कहा, और तो और लोग इतने नालायक हैं, इतने नाशुक्रे हैं कि अभी गये इनके ऊपर बैठे, पट्ट से मारा। व्यस्त हैं, क्या बताएँ आजकल व्यस्तता बहुत चल रही है।‘
जो बीच-बीच में आप दो-चार बार मुझे ऐसे (मक्खियाँ भगाते) करते देखते हैं (श्रोतागण से कहते हुए), वो क्या है? वो मक्खी आकर कहती है कि यहीं सीधे बैठूँगी, मैं बोलूँगी। अरे, हटो तुम, तुम्हें कोई बात करनी आती है? मैं जाऊँगी सीधे माइक पर बैठ कर बोलूँगी। तो फिर मैं ऐसे-ऐसे करके देवी, मैं बिल्कुल वही बोलूँगा जो आपने आज्ञा दी, पर मुझे ही बोल लेने दीजिए। बोलती है, ‘ठीक है, पर बोलना वही जो तुम्हें मैंने सिखाया है।’
तो फिर पूछते हैं कि वो सांसारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए, मैं आसमान में कैसे छलांग लगाऊँ। कौनसे तुम्हारे दायित्व, कौन तुम उनका निर्वाह कर रहे हो!
अहंकार की चाल है अपनेआप को ज़िम्मेदार मानना, क्योंकि अगर तुम ज़िम्मेदार मानोगे अपनेआप को तो बचे रहोगे कल के लिए। मैं ज़िम्मेदार हूँ न, तो मुझे अभी अपने लिए भविष्य का निर्माण करते रहना है, अपने लिए नहीं तो किसी और के लिए। अपने लिए करो तो ज़रा बुरा, ज़रा अनैतिक, ज़रा स्वार्थपूर्ण लगता है कि अरे, अपने लिए मैं अपने भविष्य का निर्माण कर रहा हूँ!
ज़िम्मेदारी में ये लगता है हम तो किसी और के भविष्य का निर्माण कर रहे हैं। किसी और के लिए हम जी रहे हैं – ‘भाई, तेरे लिए मैं अभी कम-से-कम पचास साल जीऊँगा। चलो, बढ़िया पचास साल जीने को मिला। उतना काम करने हैं, उतना काम करने के लिए कुछ भोग भी तो चाहिए न; लाओ, भोग लेकर के आओ। भाई, हम काम बहुत करते हैं।‘
जैसा कि मक्खियाँ बोलें, ‘ऐ! एसी चलते रहने देना, अभी हम बहुत काम कर रहे हैं’। और है कुछ नहीं ज़्यादा दखलंदाजी करेंगे। आपमें से ही कोई ज़रा झन्ना गया, एक पड़ेगा पट्ट और सारी ज़िम्मेदारी हवा हो जाएगी। उसके बाद दर्द भरे नग़में – ‘बेवफा सनम तेरे लिए हमने क्या-क्या न किया! और तूने कान पर चाँटा रख दिया!’
प्र: प्रणाम, आचार्य जी। दो अहंकार आपस में कनफ्लिक्ट (टकराव) में पड़ जाता है तब।
आचार्य: अरे, अहंकार एक ही है वो दो चीज़ों को लेकर के कनफ्लिक्ट में पड़ जाता है।
प्र: सरेंडर (समर्पण) नहीं आता?
आचार्य: आता है, जिसको चुनेगा उसकी तरफ़ जाएगा कुछ समय के लिए। एक पूड़ी है या समोसा है, अगर एक ही मिल सकता है तो फिर द्वंद आएगा न? ये दो थोड़े ही हो गये। ये दो अहंकार है। पूड़ी हो कि समोसा हो, जाना तो एक ही पेट में है। दो हैं क्या?